AUDITING व्यावसायिक आचार-नीति एवं आचरण-संहिता [PROFESSIONAL ETHICS AND CODE OF CONDUCT PART-1/2


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व्यावसायिक आचार-नीति एवं आचरण-संहिता

[PROFESSIONAL ETHICS AND CODE OF CONDUCT

PART-1/2

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एवं आचरण-संहिता

[PROFESSIONAL ETHICS AND CODE OF CONDUCT


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प्राक्कथन

(INTRODUCTION)

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‘आचार-नीति’ से आशय नैतिक दर्शन से है जो मनुष्यों को उनके कर्तव्यों के परिपालन में नैतिक सिद्धान्तों तथा चाल-चलन के मानकों (Standards) का ज्ञान कराता है। यहां कर्तव्यों से प्रयोजन ऐच्छिक एवं स्वयं माने गये कर्तव्यों से है। ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में आचार-नीति’ की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है. “नैतिकता, नैतिक सिद्धान्तों, नैतिक विज्ञान के समस्त क्षेत्र का विज्ञान।” इसका आशय यह है कि हम में से प्रत्येक को दैनिक व्यवहार में उन सिद्धान्तों और परम्पराओं का पालन करना चाहिए जो भतकाल में स्वीकार की गयी हैं। ऐसा करने में कोई वैधानिक बन्धन नहीं है, वरन् एक नैतिक शक्ति (force) है जो हमें उनका अनुकरण करने के लिए प्रेरित करती है।


व्यावसायिक आचार-नीति नैतिक सिद्धान्तों से कहीं अधिक है। कुछ अग्रणी व्यवसायों जैसे, विधि (law), चिकित्सा (medicine), लेखाकर्म (accountancy), आदि में अपनी विशेष आचरण-संहिता का विकास किया है जिसका परिपालन प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य हो गया है। यह प्रक्रिया प्रत्येक व्यावसायिक व्यक्ति (professional man) के व्यवहार की ओर संकेत करती है जो वह अपने ही व्यवसाय के अन्य सदस्यों के प्रति तथा जनता के घटकों के प्रति करता है। यह उसका समाज के प्रति सामान्य रूप से तथा व्यवसाय के सदस्यों के प्रति विशेष रूप से दायित्व बन जाता है।


व्यावसायिक व्यक्ति होने के नाते से प्रमाण-पत्र प्राप्त (certified) अंकेक्षक अपना दायित्व रखता है। उसकी सफलता के लिए उसे अपने नियोक्ता का विश्वास अर्जित करना चाहिए जिसके लिए उसे प्रयास करना चाहिए। उसके लिए जनविश्वास विशेष महत्व का है। अपने नियोक्ता के विश्वास के साथ-साथ उसको उनका विश्वास भी प्राप्त करना चाहिए, जो व्यापार से किसी-न-किसी प्रकार सम्बन्ध रखते हैं। वे लेनदार, विनियोजक, बैंकर, सरकारी व कराधान अधिकारी तथा अन्य बाहरी व्यक्ति हो सकते हैं। उसकी रिपोर्ट पर सभी विश्वास करते हैं जिससे उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह नैतिक आचरण, ईमानदारी तथा उच्चस्तरीय दक्षता का पोषक व्यक्ति होगा।


इस प्रकार की नैतिक आचरण-संहिता के परिपालन के लिए इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स ऑफ इण्डिया ने विशिष्ट नियम तथा निर्देश अपने सदस्यों के लिए बनाये हैं ताकि जनता का उनमें व लेखाकर्म। व्यवसाय में विश्वास जाग्रत हो सके। अतः अंकेक्षक का यह दायित्व हो जाता है कि जो कुछ सूचना वह अपनी रिपोर्ट में देता है, वह सही है। यदि यह ऐसा नहीं होता है और परिणामस्वरूप जनता को जिसमे लेनदार, विनियोजक, आदि को हानि हो जाती है तो वह उन हिसाबों पर अपना विश्वास नहीं करेगी जिनको । अंकेक्षक ने सही प्रमाणित कर दिया है। चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स अधिनियम, 1949 ने इस सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियम तैयार किये हैं।


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व्यावसायिक दुराचरण

(PROFESSIONAL MISCONDUCT)

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चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स अधिनियम, 1949 की धारा 22 के अन्तर्गत ‘व्यावसायिक दुराचरण’ की परिभाषा निम्न प्रकार दी है:


“इस अधिनियम के उद्देश्यों के लिए व्यावसायिक दराचरण के अन्तर्गत किसी भी सूची में वर्णित कोई भी कार्य (act) या भूल (omission) भी सम्मिलित समझी जायेगी, परन्तु किसी भी अन्य परिस्थिति में इस धारा के अन्तर्गत कोई भी ऐसी व्याख्या जो किसी भी प्रकार से धारा 21(1) के अधीन दी गयी काउन्सिल की किसी शक्ति या कर्तव्य को सीमित या कम करती है, इन्स्टीट्यूट के किसी भी सदस्य के आचरण के सम्बन्ध में मान्य नहीं होगी।”


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व्यावसायिक लापरवाही एवं व्यावसायिक दुराचरण में अन्तर

(DIFFERENCE BETWEEN PROFESSIONAL NEGLIGENCE AND PROFESSIONAL MISCONDUCT)

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व्यावसायिक लापरवाही (professional negligence) तथा व्यावसायिक दुराचरण (professional misconduct) में कुछ आधारभूत अन्तर हैं। व्यावसायिक लापरवाही का प्रयोग भिन्न प्रकार से होता है। मान्य व्यावसायिक स्तरों के अनुसार यदि कोई अपना कर्तव्य पूरा करने में असफल होता है जिससे उसके नियोक्ता को जिसने उसकी सेवाएं ली हैं, हानि हो जाती है, तो यह उसका लापरवाही का कार्य (act) होगा। इस प्रकार ‘लापरवाही’ से तात्पर्य अंकेक्षक के काम से सम्बन्धित दायित्वों को पूरा करने में उदासीनता से है। दूसरी ओर ‘पूर्ण लापरवाही’ (gross negligence) से तात्पर्य अंकेक्षक द्वारा अपने प्रमुख कर्तव्य को पूरा करने में असफलता से है जिसे पूरा करने का दायित्व उसके ऊपर डाला गया था।


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कार्यरत सदस्य (Member in Practice)

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अब इन्स्टीट्यूट का प्रत्येक सदस्य चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट होता है चाहे वह प्रैक्टिस करता हो या नहीं। चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स अधिनियम की धारा 2(2) में कार्यरत सदस्य की परिभाषा दी गयी है जिसका उल्लेख पिछले अध्याय में कर दिया गया है। Chartered Accountant Regulations, 1964 के विनियम (Regulation) 167 के अन्तर्गत एक चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट जो अंशकालीन सेवा में है, कार्यरत (in practice) सदस्य माना जायेगा।


एक चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट जिसे उच्च न्यायालय के आदेश से 6 महीने के लिए कार्य करने से अलग (suspend) कर दिया था, अपनी प्रैक्टिस का प्रमाण-पत्र वापस नहीं कर पाया जबकि उसे इन्स्टीटयूट की ओर से निर्देश दिया गया था। काउन्सिल ने इसको सूचना समझा और उपवाक्य [Clause (3)] के अन्तर्गत उसके विरुद्ध कार्यवाही की।


न्यायाधीश ने इस मामले में यह निर्णय दिया कि उसके विरुद्ध कोई दुराचरण का मामला नहीं बनता है। यदि किसी मामले में उसके विरुद्ध दुराचरण का अपराध बनता है, तो निस्संदेह रूप से यह सिद्ध होना चाहिए ।


(ए.सी. खैर के मामले में, 1959) उसी प्रकार इन्स्टीट्यूट की काउन्सिल ने अपनी 15 सितम्बर, 1964 की बैठक में यह निर्णय लिया कि सशस्त्र सेनाओं के साथ अपनी सेवाएं देने की अवधि में एक सदस्य को कार्यरत (in practice) माना जायेगा।


उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यह आवश्यक नहीं है कि एक सदस्य कार्यरत ही हो और “कार्यरत सदस्य कहलाने के लिए उसके नियोक्ता (client) भी हों। यदि कोई सदस्य संस्था की स्थापना करता है और लेखाकर्म सम्बन्धी कार्यों को करने का प्रस्ताव रखता है चाहे उसका कोई नियोक्ता न हो, उसे भी कार्यरत सदस्य (Member in Practice) माना जायेगा।”


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इन्स्टीट्यूट के सदस्य के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही

(DISCIPLINARY ACTION AGAINST THE MEMBER OF THE INSTITUTE)

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यदि किसी सदस्य के विरुद्ध कोई शिकायत प्राप्त होती है, तो मामले के तय होने तक क्या प्रक्रिया अपनायी जायेगी, इसका उल्लेख चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स अधिनियम, 1949 की धारा 21 में दिया गया है। यह प्रक्रिया निम्नलिखित है:


सदस्य के विरुद्ध शिकायत व जांच जब किसी सदस्य के विरुद्ध कोई सूचना या शिकायत इन्स्टीट्यूट को मिलती है और ऐसा प्रतीत होता है कि व्यावसायिक या अन्य दुराचरण के लिए सदस्य के विरुद्ध कोई प्रारम्भिक मामला बनता है तो काउन्सिल द्वारा ऐसे मामले को अनुशासन समिति को भेज दिया जायेगा जो निर्धारित विधि के अनुसार जांच-पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट काउन्सिल को देगी।


इस रिपोर्ट के प्राप्त होने पर काउन्सिल यह देखती है कि सदस्य अपराधी नहीं है तो मामला समाप्त कर दिया जाता है। इसके विपरीत. यदि दसरी ओर यह पाया जाता है कि सदस्य प्रथम अनुसूची में वर्णित व्यावसायिक दुराचरण के लिए दोषी है तो सदस्य को कारण बताओ’ सूचना दी जाती है कि उसके विरुद्ध कार्यवाही क्यों न की जाए। ऐसा सदस्य अपना लिखित उत्तर दे सकता है और वैधानिक परामर्शदाता की सहायता ले सकता है।


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कार्यवाही(ACTION)

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व्यावसायिक दुराचरण सिद्ध होने पर काउन्सिल :


(अ) सदस्य को डांट-डपट करके भविष्य में सुधार के लिए कह सकती है, अथवा


(ब) रजिस्टर से अधिक-से-अधिक 5 वर्ष या कम के लिए उसका नाम हटा सकती है।


यदि काउन्सिल यह निर्णय लेती है कि सदस्य का नाम रजिस्टर से 5 वर्ष से अधिक के लिए अथवा स्थायी रूप से अलग कर दिया जाए तो यह कोई आदेश पारित नहीं करेगी, पर इस मामले को अपनी सिफारिशों के साथ उच्च न्यायालय (High Court) को भेजेगी।


उच्च न्यायालय मामले की प्राप्ति पर उसकी सुनवाई के लिए तारीख तय करेगा और इसकी सूचना इन्स्टीट्यूट के सदस्य को दी जायेगी। साथ ही यह सूचना काउन्सिल व केन्द्रीय सरकार को दी जायेगी। इस प्रकार इन पक्षों को उनके तर्कों की सुनवाई के लिए अवसर प्रदान किया जायेगा।


उपर्युक्त पक्षों के सुनने के उपरान्त उच्च न्यायालय निम्न में से कोई आदेश पारित कर सकता है :


(अ) मामला समाप्त कर सकता है,


(ब) सदस्य को डांट-डपट लगा सकता है,


(स) स्थायी रूप से सदस्य का नाम रजिस्टर में से काट सकता है अथवा ऐसी अवधि के लिए हटा सकता है जैसा वह उचित समझता है।


(द) आगे जांच-पड़ताल के लिए मामले को काउन्सिल के पास भेज सकता है और रिपोर्ट मांग सकता है।


यदि उच्च न्यायालय को यह लगता है कि किसी मामले का किसी अन्य उच्च न्यायालय में हस्तान्तरण न्याय की दृष्टि से उचित होगा और विभिन्न पक्षों की सुविधा में होगा, तो वह यदि उचित समझे तो आवश्यक शर्तों के साथ उस उच्च न्यायालय को हस्तान्तरण कर सकता है और यह उच्च न्यायालय इस मामले का निपटारा उसी प्रकार करेगा जैसा कि इसके काउन्सिल से प्राप्त होने पर निपटारा किया जाता।


यदि इन्स्टीट्यूट के दो या अधिक सदस्यों के मामले काउन्सिल के द्वारा विभिन्न उच्च न्यायालयों को भेजे गये हैं. तो केन्द्रीय सरकार न्याय अथवा सभी पक्षों की सुविधा की दृष्टि से यह तय कर सकती है कि कौन-सा उच्च न्यायालय सभी सदस्यों के विरुद्ध मामले की सुनवाई करेगा।


दीवानी न्यायालय (Civil Court) के अधिकार काउन्सिल तथा अनुशासन समिति दोनों में ही कोड ऑफ सिविल प्रोसिजर्स, 1908 (Code of Civil Procedures, 1908) के अन्तर्गत सन्निहित हैं, जो निम्न हैं:


(अ) किसी व्यक्ति को बुलवाना, उपस्थिति लेना तथा शपथ (Path) पर उससे पूछताछ करना,


(ब) किसी प्रपत्र (document) की खोज व उसे प्रस्तुत करवाना,


(स) शपथ-पत्र पर साक्ष्य (evidence) प्राप्त करना। धारा 22-A के अन्तर्गत इन्स्टीट्यूट का कोई भी सदस्य काउन्सिल के निर्णय से असन्तुष्ट होने पर आदेश-प्राप्ति के 30 दिन के अन्दर उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। उच्च न्यायालय इस अवधि की समाप्ति के पश्चात अपील स्वीकार कर सकता है, यदि वह सन्तुष्ट हो जाता है कि सदस्य को समय पर अपील करने से रोकने के लिए पर्याप्त कारण विद्यमान है।।


उच्च न्यायालय काउन्सिल के किसी आदेश को बदल सकता है, और


(अ) आदेश को उचित ठहराना, संशोधन करना या आदेश को निरस्त कर सकता है, या


(ब) कोई दण्ड (penalty) दे सकता है या आदेश में पारित दण्ड को कम, अधिक या निरस्त या ज्यों का त्यों रहने के आदेश दे सकता है, या ।


(स) मामले की परिस्थितियों पर विचार करने के उपरान्त उच्च न्यायालय पुनः जांच के लिए काउन्सिल के पास वापस कर सकता है, या


(द) ऐसा आदेश पारित कर सकता है जिसे उच्च न्यायालय उचित समझता है।


प्रावधान यह है कि काउन्सिल के किसी आदेश को न तो संशोधित किया जा सकता है और न रद्द किया जा सकता है जब तक कि काउन्सिल को सुनने का अवसर न दिया जाए और न कोई दण्ड को बढ़ाने या दण्ड देने का आदेश ही पारित किया जायेगा जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति को सुनने का अवसर नहीं दिया जाए।


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अनुसूचियाँ (Schedules)

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कार्यरत सदस्यों (Members in Practice) के व्यावसायिक दुराचरण सम्बन्धी दो अनुसूचियां चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स अधिनियम, 1949 के साथ दी गयी हैं। प्रथम अनुसूची (First Schedule) में सदस्य के दुराचरण (Misconduct) सम्बन्धी विवरण है जिसका मामला काउन्सिल तय कर सकती है। इस अनुसूची के 3 भाग हैं, भाग 1,2 व 31 द्वितीय अनुसूची में आचरण के कुछ महत्वपूर्ण नियम दिये गये हैं और यदि कोई सदस्य नियमों का उल्लंघन करता है, तो इसके लिए उच्च न्यायालय के निर्णय की आवश्यकता होती है।

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