जल जँगल जमीन का नारा देने वाले कोमरम भीम


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जल जँगल जमीन का नारा देने वाले कोमरम भीम 

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आदिवासी स्वायत्तता के संघर्ष में कोमरम भीम का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसके लिए वे शहीद भी हुए। किन्तु उनकी पहचान मुख्य रूप से केवल तेलंगाना/आंध्र प्रदेश की सीमाओं तक ही सीमित रही है। इसका एक कारण यह भी है कि उन पर लिखे ज्यादातर ऐतिहासिक लेख तेलुगु भाषा में है और अब तक उनका अनुवाद बहुत सीमित रहा है। ज़ाहिर है कि उनके इतिहास को भी बाकि आदिवासी इतिहासों की तरह किताबों के पन्नों से मिटा दिया गया है। बहुत ही कम लोगों को यह बात पता है कि, ‘जल जंगल जमीन’ का नारा सबसे पहले कोमरम भीम ने 1940 में दिया था। निजाम के विरूद्ध उनके आंदोलन में उन्होंने तर्क दिया कि आदिवासियों को जंगल के सभी संसाधनों पर पूर्ण अधिकार दिया जाना चाहिए।

कोमरम भीम गोंड (कोइतुर) समाज से थे और उनका जन्म संकेपल्ली, आदिलाबाद में 1900 इसवीं में हुआ था। आदिलाबाद जिला तेलंगाना की उत्तर दिशा में है और महाराष्ट्र के साथ सीमा बनता है। यह जगह गोंड समाज की महान नायिका जंगो रायतार का जन्म स्थल भी है, जहाँ से उन्होंने कोइतुर समाज की रुढ़िवादी कुरीतियों के खिलाफ आन्दोलन छेड़ा और ‘रायतार’ नाम से प्रसिद्द हुईं। इस क्षेत्र में मुख्य रूप से गोंड समाज बसा हुआ है और यह पहले चांदा (चंद्रपुर, महाराष्ट्र) और बल्लालपुर के गोंड साम्राज्य के संप्रभुता के अधीन था।

भीम का बचपन बाहरी दुनिया से परे बीता, उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की और अपने समाज की कठिनाइयों और अनुभवों को देखते बड़े हुए। मैपति अरुण कुमार अपनी किताब ‘आदिवासी जीवना विद्धवंसम’ में लिखते हैं – भीम, जंगलात पुलिस (फ़ॉरेस्ट गार्ड), व्यवसायियों और ज़मीनदारों द्वारा गोंड और कोलाम आदिवासियों पर हो रहे शोषण को देखते हुए बड़े हुए। जीवन यापन के लिए वे एक स्थान से दूसरे स्थान भटकते और इस तरह खुद को व्यापारियों और अधिकारियों के शोषण और जबरन वसूली से भी खुद को बचाते। ‘पोडू’ खेती की फसल को निज़ाम के अधिकारी ले जाया करते थे और तर्क देते थे कि ये उनकी जमीन है। अवैध रूप से पेड़ों को काटने के इल्ज़ाम में वे आदिवासी बच्चों की उंगलियाँ तक काट देते थे। टैक्स की जबरन वसूली की जाती थी, अन्यथा फर्जी मुकदमे दायर कर दिए जाते थे। खेती के बाद हाथ में कुछ भी नहीं बचने पर लोग गाँव से पलायन करते लगे। इन परिस्थितियों में, आदिवासियों के अधिकार के लिए लड़ने के कारण फारेस्ट अधिकारियों ने भीम के पिता की हत्या कर दी। अपने पिता की हत्या के बाद भीम क्रोधित हुव, इसके बाद उनका परिवार संकेपल्ली से सरदारपुर चला गया।

1940 में अक्टूबर के महीने की बात है, एक दिन पटवारी लक्ष्मण राव निज़ाम पट्टादार सिद्दीकी अन्य 10 लोगों के साथ गाँव में आये और लोगों को गालियाँ देने लगे व खेती के बाद जबरन टैक्स वसूली के लिए परेशान करने लगे। लोगों ने इसका विरोध किया और इस संघर्ष में कोमरम भीम के हाथों सिद्दीकी की मौत हो गयी।

इस घटना के बाद भीम अपने साथी कोंडल के साथ पैदल चलते हुए चंद्रपुर चले गए। वहां एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक – ‘विटोबा’ ने उनकी मदद की और दोनों को अपने साथ ले गए। विटोबा उस समय निज़ाम और अंग्रेजों के खिलाफ एक पत्रिका चला रहे थे। विटोबा के साथ रहकर भीम ने अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू सीखी। कुछ समय बाद, पुलिस ने विटोबा को गिरफ्तार कर लिया और प्रेस को बंद कर दिया। उसके बाद भीम मंचरियल (तेलंगाना) रेलवे स्टेशन में मिले एक युवक के साथ चाय बागान में काम करने के लिए असम चले गए। वहां उन्होंने साढ़े चार वर्षों तक काम किया और कार्यरत होते हुए चाय बागान के मजदूरों के अधिकारों के लिए मालिकों के खिलाफ विरोध भी किया। इस संघर्ष के दौरान भीम गिरफ्तार कर लिए गए। चार दिनों के बाद वे जेल से निकलने में कामयाब हुए और मालगाड़ी में सवार होकर बल्लारशाह (चंद्रपुर के पास एक जगह) स्टेशन पहुंचे।

असम में रहने के दौरान उन्होंने अल्लूरी सीतारामराजू के बारे में सुना था, जो कि (आंध्र प्रदेश) में आदिवासियों के संघर्ष का नेत्रित्व कर रहे थे। उन्होंने रामजी गोंड से भी आदर्श लिया जिन्होंने आदिलाबाद में निज़ाम के अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठायी थी। लौटने के बाद उन्होंने आदिवासियों के भविष्य के संघर्ष की योजना बनानी और लोगों को संगठित करना शुरू कर दिया।

वर्तमान तेलंगाना पहले निज़ाम के हैदराबाद राज्य का हिस्सा था। इस पर अफजलशाही वंश के नवाबों ने शासन किया, जिसे आज़ादी के बाद 1948 में भारतीय संघ में सम्मिलित कर लिया गया। निज़ाम के शासनकाल के दौरान असह्य टैक्स लगाये जाते थे और आदिवासी समाज बड़े पैमाने पर जमीनदारों के शोषण और अत्याचार का शिकार था।  अपने ऊपर चल रहे इन अत्याचारों के बीच, भीम ने निज़ाम सरकार के खिलाफ वृहद् आन्दोलन की शुरुवात की और उनकी सेना के खिलाफ गोरिल्ला वारफेयर (युद्ध) की तकनीक को अपनाया। जोड़ेघाट को अपने संघर्ष का केंद्र बनाते हुए उन्होंने 1928 से 1940 तक गोरिल्ला युद्ध जारी रखा।

लौटने के बाद वे अपनी माँ और भाई सोमू के साथ काकनघाट चले गए। वहां उन्होंने लच्छू पटेल के साथ काम किया जो की देवदम गाँव के मुखिया थे। लच्छू ने भीम के शादी की जिम्मेदारी भी ली और उनका विवाह सोम बाई से करवाया।  भीम ने लच्छू के जमीन से सम्बंधित मुकदमे को असिफाबाद के अमीनसाब के सामने रखने में मदद की। इस घटना ने भीम को आस पड़ोस के गाँव में लोकप्रिय बना दिया। कुछ समय बाद भीम अपने परिवार के साथ भाबेझारी चले गए और खेती के लिए जंगल की जमीन को साफ़ किया। पटवारी, जंगलात, चौकीदार फिर से फसल की कटाई के समय गाँव पहुंचे और उन्हें परेशान करने लगे। यह निज़ाम सरकार की जमीन है कहकर उन्होंने, भीम और उनके परिवार को वहां से निकलने की धमकी दी। इस सिलसिले में भीम ने निज़ाम से मुलाकात करने का फैसला किया ताकि वह आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों पर चर्चा कर सकें और न्याय की गुहार मांगें। लेकिन भीम को उनसे मिलने की अनुमति नहीं मिली। बिना हतोत्साहित हुए भीम जोड़ेघाट लौटे और उन्हें महसूस हुआ कि निज़ाम सरकार के खिलाफ ‘क्रांति’ ही एकलौता समाधान बचा था। उन्होंने बारह गाँव (जोड़ेघाट, पाटनपुर, भाबेझारी, टोकेन्नावडा, चलबरीदी, शिवगुडा, भीमानगुंदी, कल्लेगाँव, अंकुसपुर, नरसापुर, कोषागुडा, लीनेपट्टेर) के आदिवासी युवाओं और आम लोगों को संगठित किया; साथ ही भूमि अधिकारों के संघर्ष के लिए एक गुरिल्ला सेना का गठन किया। उन्होंने इस क्षेत्र को एक स्वतंत्र गोंडवाना राज्य घोषित करने की योजना को भी प्रस्तावित किया। कोमरम भीम की यह मांग स्वतंत्र गोंडवाना राज्य की मांगों की श्रंखला में पहली थी।

‘तुडुम’ की आवाज़ के साथ अन्दोलन की शुरुवात की गई। बाबेझारी और जोड़ेघाट में हमला करके गोंड सेना का विद्रोह आरंभ हुआ। इस विद्रोह के बारे में सुनकर निज़ाम सरकार भयभीत हो गयी और असिफाबाद कलेक्टर को भीम से समझौता करने को भेजा। निज़ाम ने आश्वासन दिया कि आदिवासियों को भूमि पट्टा दिया जाएगा और अतिरिक्त भूमि पर कोमरम भीम को स्वशासन हेतु दिया जाएगा। लेकिन भीम ने उनके प्रस्ताव को नकार दिया और कहा कि उनका संघर्ष न्याय के लिए है। भीम ने झूठे आरोपों से गिरफ्तार किये गए लोगों को छोड़ने की मांग की। साथ ही सेल्फ-रूल (स्व शासन) की मांग को आगे रखते हुए निज़ाम को गोंड लोगों के स्थान से निकल जाने को कहा।

विद्रोह की शुरुवात होते ही गोंड आदिवासियों ने अत्यंत उत्साह और जूनून के साथ अपने जमीन की रक्षा की। भीम के वक्तृत्व कौशल ने लोगों को जल-जंगल-जमीन के आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और भविष्य को बचाने के लिए लोगों ने आखरी सांस तक लड़ने का निश्चय किया। इसी समय कोमरम भीम ने ‘जल – जंगल – जमीन’ का नारा भी दिया।

निज़ाम सरकार ने भीम की मांगों को ठुकरा दिया और गोंड आदिवासियों पर उत्पीड़न जारी रहा। इसके साथ ही निज़ाम सरकार, भीम को मारने की साजिश करने लगी। तहसीलदार अब्दुल सत्तार ने इस क्रूर षड्यंत्र को अंजाम दिया और कप्तान एलिरजा ब्रांड्स के साथ 300 सैनिकों को लेकर बाघेजारी और जोडेघाट की पहाड़ियों में भेज दिया। निज़ाम सरकार की सेना भीम और उनकी सेना को पकड़ने में नाकाम रही। इसलिए उन्होंने कुडु पटेल (गोंड) को  रिश्वत देकर उसे निजाम सरकार का मुखबिर बना लिया। जिसने उन्हें भीम की सेना के बारे में जानकारी प्रदान की।

1 सितम्बर, 1940 की सुबह में जोड़ेघाट की महिलाओं ने गाँव के आस पास कुछ सशस्त्र पुलिस कर्मियों को देखा था, जो कोमरम भीम की खोज में थे। भीम, जो अपने कुछ सैनिकों के साथ वहां ठहरे हुए थे, पुलिस के आने की खबर सुनकर सशस्त्र तैयार हो गए; हालांकि ज्यादातर सैनिक कुल्हाड़ियाँ, तीर-धनुष, बांस की छड़ी आदि ही जुटा पाए। आसिफाबाद तालुकदार – अब्दुल सत्तार ने एक दूत भेजकर भीम को आत्मसमर्पण कराने का प्रयास किया। तीसरी बार आत्मसमर्पण की मांग को ठुकराने पर, सत्तार ने सीधा गोली चलने के आदेश दे दिए। भीम और उनके सैनिक बन्दूक के आगे असहाय थे और ज्यादा कुछ न कर सके। इस घटना में भीम के अलावा 15 सैनिक शहीद हुवे। मारू और भादू, भीम के निकट सहयोगी बताते हैं कि, “पूर्णिमा के दिन हुई इस घटना से पूरे आदिवासी समाज में उदासी छा गई और मातम सा माहौल बन गया।” शहीदों की लाश को बिना मृत्यु संस्कार के जला दिया गया था, इसलिए बहुत ही कम लोगों को शहीदों को देखने मिला। पूर्णिमा की उस रात में भीम के सैकड़ों अनुयायियों ने धनुष, तीर और भाले से पुलिस का बहादुरी से सामना किया और अपने जान की कुर्बानी दी।

‘भीम को परंपरागत जादुई मंत्रो का ज्ञान है’, की धारणा को मानकर उन्हें डर था कहीं भीम फिर से जीवित न हो जाएं। इसलिए उन्होंने भीम के शरीर में तब तक गोलियां दागी जब तक उनका शरीर छिल्ली हो गया और पहचान योग्य न रहा। अशौजा पूर्णिमा के उस दिन एक गोंड सितारा गिर गया और जोड़ेघाट की पहाड़ियां रो उठी। ‘कोमरम भीम अमर रहे, भीम दादा अमर है’ के नारों से सारे जंगल गूँज उठे।

कोमरम भीम के बारे में मौजूदा ऐतिहासिक लेखों का दावा है कि कोमरम भीम एक “राष्ट्रवादी वनवासी” नेता थे जिन्होंने निज़ाम सरकार के खिलाफ संघर्ष किया। ये दावा करते हैं कि भीम की नाराज़गी ‘हिन्दुओं’ पर हो रहे इस्लामी (निज़ाम) शोषण से थी, जिससे कि हिन्दू संस्कृति का हास हो रहा था। लेकिन जब आदिवासी, हिन्दू धर्म के चातुर्वर्ण में आते ही नहीं, जब संवैधानिक रूप से आदिवासी हिन्दू धर्म के बाहर हैं, और जब भारत के न्यायलय ने भी यह माना है कि गोंड हिन्दू नहीं हैं – तो फिर किस तर्क से कोमरम भीम ‘इस्लामी’ शोषण के खिलाफ लड़ रहे एक “हिन्दू” का प्रतीक हैं? भीम के इतिहास का कौन सा तथ्य यह दर्शाता है कि भीम ने ‘हिन्दू’ धर्म को स्वीकार किया और हिन्दुओं के अधिकार की लड़ाई की?

गोंड समाज के नज़रिए से देखने पर, भीम का इतिहास हमें एक अलग ही चित्र दिखता है। यह बताता है कि ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ करके, भीम को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा से जोड़ना इतिहासकारों का महज एक प्रोपगेंडा रहा है। जिन्होंने भीम को एक स्वतंत्र गोंड आदिवासी नेता के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। जबकि वास्तव में कोमरम भीम का संघर्ष पूर्ण रूप से आदिवासियों पर हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ था, यह संघर्ष जल जंगल जमीन के अधिकार के लिए था। अपने लोगों की कल्पना में, भीम केवल अपने लोगों को ‘दिकु’ (बाहरी लोगों) से मुक्त कराने, उन्हें न्याय दिलाने और स्वशासन स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे।

जमीन के अधिकार के लिए दशकों से चलते आ रहे आदिवासिओं के संघर्ष में कोमरम भीम के आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है और भीम हम सब के लिए एक क्रन्तिकारी मिसाल हैं। गौरतलब है कि, गोंड समाज में कोमरम भीम की अत्यंत सम्मानजनक स्थिति है और उन्हें ‘पेन’ के रूप में स्वीकारा गया है। हर वर्ष अश्वयुजा पूर्णिमा के दिन गोंड समुदाय कोमरम भीम की पुण्यतिथि मनाता है और इस अवसर पर उनके जीवन और संघर्ष को याद करने के लिए जोड़ेघाट में एक समारोह का आयोजन किया जाता है। लम्बे समय तक संघर्ष के बाद, उनकी मृत्यु के 72 साल बाद, 2012 में भीम की मूर्ती को टैंक बैंड, हैदराबाद में स्थापित किया गया। आज हमारे समक्ष चल रही जल जंगल जमीन की लड़ाई में भीम सदैव आदिवासियों के लिए एक आदर्श रहेंगे।


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