समरसता संवाद और राष्ट्र-तपस्या के शिल्पी डॉ. इंद्रेश कुमार
समरसता संवाद और राष्ट्र-तपस्या के शिल्पी डॉ. इंद्रेश कुमार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) केवल एक संगठन नहीं, बल्कि व्यक्ति निर्माण की एक अनवरत चलने वाली कार्यशाला है। इस कार्यशाला से निकले अनगिनत तपस्वियों में एक प्रमुख नाम इंद्रेश कुमार जी का है। उनका जीवन एक ऐसी यात्रा है जहाँ निजी महत्त्वाकांक्षाओं का पूर्ण विसर्जन है और राष्ट्रहित सर्वोपरि है। इस फलक पर उनके जीवन के त्याग और तपस्या के पहलुओं को समझना वास्तव में आधुनिक भारत के एक कर्मयोगी को समझने जैसा है।
त्याग की पृष्ठभूमि,वैभव से वैराग्य तक
इंद्रेश जी का जन्म हरियाणा के कैथल में हुआ था। एक मेधावी छात्र के रूप में उन्होंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। उस समय,एक इंजीनियर के लिए करियर के असीमित अवसर थे, सुख-सुविधाओं भरा जीवन था और समाज में प्रतिष्ठा थी। लेकिन उनके भीतर राष्ट्र के प्रति कुछ बड़ा करने की तड़प थी।
उन्होंने अपने कैरियर और पारिवारिक सुखों का मोह त्यागकर संघ के 'प्रचारक' के रूप में जीवन जीने का कठिन निर्णय लिया। प्रचारक बनने का अर्थ है—अपना कोई घर न होना,कोई बैंक बैलेंस न होना और पूरा जीवन समाज के चरणों में अर्पित कर देना। यह उनके जीवन का पहला और सबसे बड़ा 'त्याग' था।
तपस्या के कठिन वर्ष
इंद्रेश जी की तपस्या का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उनका जम्मू-कश्मीर में बिताया गया समय है। जब घाटी में अलगाववाद और आतंकवाद चरम पर था, तब उन्होंने वहां संघ के कार्य को विस्तार दिया। एक ऐसे क्षेत्र में जहाँ राष्ट्रवाद की बात करना जान जोखिम में डालना था,वहां उन्होंने 'राष्ट्र प्रथम' का मंत्र फूंका।
उनकी तपस्या का स्वरूप केवल शारीरिक श्रम नहीं था, बल्कि वैचारिक संघर्ष भी था। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में,बिना किसी सुरक्षा के, दुर्गम पहाड़ियों और संवेदनशील इलाकों की यात्राएं कीं। उनका उद्देश्य केवल हिंदुओं को संगठित करना नहीं था,बल्कि कश्मीर के हर नागरिक को भारत की मुख्यधारा से जोड़ना था।
सामाजिक समरसता की अनूठी पहल
इंद्रेश कुमार जी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक समरसता को समर्पित रहा है। उन्होंने महसूस किया कि भारत की एकता तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक अल्पसंख्यक समुदाय के मन से भय और अलगाव की भावना दूर न हो। इसी उद्देश्य से उन्होंने 'मुस्लिम राष्ट्रीय मंच' (MRM) की नींव रखने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई।
यह कार्य किसी कठोर तपस्या से कम नहीं था। उन्हें अपनों के बीच भी आलोचना झेलनी पड़ी और विरोधियों के बीच भी। लेकिन वे अविचलित रहे। उन्होंने 'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' के सपने को साकार करने के लिए इस्लाम के अनुयायियों को राष्ट्रवाद, गंगा-जमुनी तहजीब और भारतीयता के मूल मूल्यों से जोड़ने का भगीरथ प्रयास किया। आज यह मंच देश भर में लाखों मुसलमानों को राष्ट्र निर्माण से जोड़ने का कार्य कर रहा है।
राष्ट्र की सुरक्षा
इंद्रेश जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने केवल सामाजिक कार्य ही नहीं किए, बल्कि 'हिमालय परिवार' और 'भारत-तिब्बत सहयोग मंच' जैसे संगठनों के माध्यम से भारत की सीमाओं की सुरक्षा और पड़ोसी देशों के साथ सांस्कृतिक संबंधों पर भी बल दिया। वे मानते हैं कि हिमालय केवल बर्फ का पहाड़ नहीं, बल्कि भारत की सुरक्षा का कवच और संस्कृति का उद्गम स्थल है। उनकी इस दूरदर्शिता के पीछे दशकों का अध्ययन और हजारों मील की पैदल यात्राएं शामिल हैं।
सादगी और अनुशासन
एक आदर्श प्रचारक
इंद्रेश जी की जीवनशैली को जो भी करीब से देखता है,वह उनकी सादगी का कायल हो जाता है। उनके पास अपनी कोई निजी संपत्ति नहीं है। एक छोटा सा बैग, कुछ जोड़ी कपड़े और देश सेवा का संकल्प—यही उनकी कुल जमा पूँजी है। उनकी वाणी में ओज है, लेकिन व्यवहार में विनम्रता। वे घंटों तक कार्यकर्ताओं की समस्याओं को सुनते हैं और उन्हें समाधान प्रदान करते हैं।
संघ में अनुशासन ही तपस्या है। समय पर उठना, प्रार्थना, बैठकें और निरंतर प्रवास। इस उम्र में भी उनकी ऊर्जा युवाओं को मात देती है। यह ऊर्जा उन्हें किसी औषधि से नहीं, बल्कि उनके लक्ष्य के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा से मिलती है।
आज के दौर में जब व्यक्ति 'स्व' पर केंद्रित है,इंद्रेश कुमार जी 'सर्व' की बात करते हैं। उनका लेख और विचार अक्सर हमें याद दिलाते हैं कि राष्ट्र की मजबूती केवल सेना या अर्थशास्त्र से नहीं,बल्कि नागरिकों के चरित्र और उनके त्याग की भावना से आती है। उन्होंने सिखाया कि धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर 'राष्ट्र धर्म' ही सर्वोपरि है।
इंद्रेश कुमार जी का जीवन 'स्वयंसेवक' शब्द की सार्थकता का प्रमाण है। उनकी तपस्या ने न केवल संघ को मजबूती दी, बल्कि भारतीय समाज में संवाद और समन्वय के नए द्वार खोले। उनका 'त्याग' हमें प्रेरित करता है कि हम भी अपने स्वार्थों को त्यागकर समाज के लिए कुछ समय निकालें।
वे एक ऐसे आधुनिक ऋषि हैं, जिन्होंने हिमालय की गुफाओं में नहीं, बल्कि जन-जन के बीच रहकर राष्ट्र निर्माण की साधना की है। उनके विचार और उनका जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाश स्तंभ बना रहेगा।






टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें