विश्वनाथ प्रताप सिंह:पिछड़ों के मसीहा

 




विश्वनाथ प्रताप सिंह:पिछड़ों के मसीहा


बहुत अलग ही तरह के नेता थे विश्वनाथ प्रताप सिंह


विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwanath Pratap Singh) बहुत तेजी से राजनीति में उठे और तेजी से गायब भी हो गए


वीपी सिंह ने 1990 में मंडल कमीशन लागू किया ओबीसी आरक्षण से सवर्ण समुदाय वीपी सिंह से नाराजमंडल कमीशन ने देश की राजनीतिक दशा बदल दी



विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwanath Pratap Singh) ऐसे राजनेता रहे जो बहुत ही अलग तरह से और अलग मुद्दों के कारण सुर्खियों में रहे. एक समय इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के काफी खास नेता रहे सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी रहे. लेकिन बाद में खुद को कांग्रेस से अलग किया और संघर्ष का रास्ता चुनकर प्रधानमंत्री (Prime Minister) पद पहुंचे. उनका कार्यकाल विवादित घटनाओं और फैसलों से भरपूर रहा और वे सत्ता से बाहर होने के बाद खुद भी राजनैतिक पटल से गायब होते गए.


भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwanath Pratap Singh) कई कारणों से याद किए जाते हैं जो उन्हें एक अलग ही किस्म के राजनेता की श्रेणी में पहुंचाते हैं कांग्रेस (Congress) के खास और इंदिरागांधी और राजीव गांधी (Rajeev Gandhi) के करीबी नेताओं में से एक रहे व्ही पी सिंह कांग्रेस से ऐसे अलग हुए कि उन्होंने कांग्रेस को सत्ता से भी बाहर कर दिया और चुनाव जीत कर खुद प्रधानमंत्री भी बने, लेकिन विवादों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. यह पूरी कहानी अपने आप में काफी रोचक है कि कैसे मंडा के राजा अचानक राजनैतिक सुर्खियों में आए, विवादों में रहे और फिर राजनैतिक परिदृश्य से गायब भी हो गए.


राजपरिवार में जन्म

विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 को उत्तरप्रदेश के इलाहबाद (अब प्रयागराज) जिले में  राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र के रूप में हुआ था, जो मंडा रियासत के राजा थे. कॉलेज के समय ही वे छात्र संगठन के उपाध्यक्ष बने. 1957 में उन्होंने भूदान आंदोलन में भाग लेते हुए अपनी जमीनें दान कर जिसका विवाद इलाहबाद उच्च न्यायालय तक पहुंच गया था.


कांग्रेस के शीर्ष नेता

राजनीति में उनकी गहरी रुचि शुरू से ही रही थी और 1969 में ही वे कांग्रेस से जुड़ गए और 1980 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बन गए थे. इसके बाद 1983 में केंद्रीय वाणिज्य मंत्री भी बने. वे उस समय प्रधानमंत्री इंदिरागांधी के काफी करीबी नेताओं में गिने जाते थे. बाद में इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वे देश के वित्तमंत्री तक बने.


राजनैतिक जीवन का दूसरा दौर

1987 तक सिंह कांग्रेस के शीर्ष नेता तो थे, लेकिन उसके बाद बोफोर्स घोटले ने सब कुछ बदल गिया और यहां से सिंह का एक अलग रूप दिखाई दिया. उन्होंने घोटले के कारण रक्षा मंत्री पद से इस्तीफा दिया और बोफोर्स घोटाला का विरोध करते हुए कांग्रेस के भी विरोधी हो गए. उन्होंने जनता दल नाम की खुद की एक पार्टी बना ली.



विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwanath Pratap Singh) एक समय इंदिरा गांधी के विश्वस्तों में से एक माने जाते थे. 


चुनाव में जीत

1989 के चुनावों में सिंह ने कांग्रेस और राजीव गांधी का का पुरजोर विरोध किया और बोफोर्स घोटाले के दोनों की ही जिम्मेदार ठहराते रहे. इस मुद्दे का उन्हें और उनकी पार्टी को बहुत फायदा मिला और  चुनाव में उनकी पार्टी को 144 सीटें मिली. इसके बाद जनता दल, वाम मोर्चा और भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनाने का फैसला हुआ और वे  प्रधानमंत्री पद के लिए गए.


पिछड़ों के मसीहा

लेकिन इस तरह से बेमेल पार्टियों की मिली जुली गठबंधन सरकार चलाना बहुत मुश्किल हो रहा था. उनके कार्यकाल में कश्मीरी हिंदुओं पर अत्याचार और पलायन की घटनाएं हुईं तो मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के बाद वे खुद को एक मसीहा के तौर पर साबित करते से दिखे. उनके इस फैसले ने भारतीय राजनीति को एक अलग ही दिशा दे दी और कुछ लोगों के लिए मसीहा तो कुछ के लिए खलनायक बन गए.


 अक्सर विवादों के कारण ही सुर्खियों में रहे.


सरकार गिरने पर दिया इस्तीफा

राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा विश्वनाथ प्रताप सिंह से नाराज हो गई और सिंह की सरकार को अपना बहुमत गंवाना पड़ा. सिंह ने खुद को अपने सिद्धांतों से समझौता ना करने वाले नेता के रूप में पेश किया. इसके बाद कांग्रेस ने चंद्रशेखर को समर्थन दिया जिससे समाजवादी जनता पार्टी की सरकार बनी, लेकिन यह सरकार जल्दी ही गिर गई और देश ने 1991 में आम चुनाव का समाना किया.


इसके बाद वीपी सिंह राजनैतिक परिदृश्य से गायब हो गए. इसकी सबसे प्रमुख वजहें थी राजीव गांधी की मौत, राममंदिर का ज्वलंत मुद्दा जिसमें मस्जिद का ढांचा गिरने के बाद वे इस मुद्दे पर चर्चा में नहीं दिखे. उनकी पार्टी के अन्य नेता अपने –अपने राज्यों में तो शीर्ष पर रहते हुए राष्ट्रीय राजनीति में दिखे, लेकिन व्हीपी सिंह गरीबों के लिए अपने कार्य करते रहे और राजनीति में दिखना कम होते गए. 1996 में एक बार फिर उन्हें संयुक्त मोर्चा के नेता के रूप में प्रधानमंत्री पद ऑफर हुआ, लेकिन उन्होंने इस बार इनकार कर दिया. बाद में उन्होंने  समाज सेवा और पेंटिंग परही ध्यान केंद्र रखा, स्वास्थ्य कारणों से वे सक्रिय राजनीति से पूरी तरह से दूर होगई और 27 नवंबर 2008 को उनका देहांत हो गया.



वीपी सिंह: देश का वो नायक जिसे एक फैसले ने बना दिया सवर्णों के लिए 'खलनायक'


बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आए वीपी सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नए मसीहा और क्लीन मैन की इमेज के साथ अवतरित हुए थे. लेकिन, मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू करते ही ओबीसी समुदाय के लिए हीरो बन गए जबकि सवर्ण समाज की नजर में वो विभाजनकारी व्यक्तित्व बन गए. मंडल कमीशन के विरोध में देश भर में सवर्ण समुदाय ने आंदोलन किया.


वीपी सिंह ने 1990 में मंडल कमीशन लागू किया ओबीसी आरक्षण से सवर्ण समुदाय वीपी सिंह से नाराजमंडल कमीशन ने देश की राजनीतिक दशा बदल दी



अस्सी के दशक के आखिरी सालों में 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है' नारे के साथ लोग विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के आठवें प्रधानमंत्री बने थे. बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आए वीपी सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नए मसीहा और क्लीन मैन की इमेज के साथ अवतरित हुए थे. लेकिन, मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू करते ही वीपी सिंह सवर्ण समुदाय की नजर 'राजा नहीं, 'रंक' और 'देश का कलंक' में तब्दील हो गए. 



वीपी सिंह ने एक जमींदार परिवार से निकल कर कांग्रेस की राजनीति में कदम रखा और यूपी के मुख्यमंत्री से होते हुए देश का वित्त मंत्री व रक्षा मंत्री बने. इसमें से उनका मुख्यमंत्री काल बागियों के खिलाफ अभियान के लिए जाना जाता है, जबकि वित्त मंत्री और रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने कॉरपोरेट करप्शन और रक्षा सौदा दलाली के खिलाफ सत्ता से विद्रोह करने का सियासी कदम उठाया. 


बोफोर्स मामले ने बदल दी सियासत


बोफोर्स और एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी रक्षा सौदों के दलाली को लेकर वीपी सिंह ने केंद्र की राजीव गांधी सरकार से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस से दूर हो गए. न ही उनके पास कोई संगठन था और न किसी विचारधारा का आलम्बन. ऐसे में सिर्फ अपनी साफ-सुथरी व ईमानदार राजनेता छवि थी, जिसके सहारे देश राजनीति में वो धूमकेतु की तरह छा गए. बोफोर्स मुद्दे को लेकर वो जनता के बीच गए और इस मुद्दे को केंद्र में रखकर लड़े गए. 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई और कम्युनिस्टों और बीजेपी के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने.



वीपी सिंह का जन्म 1931 में हुआ था


विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून 1931 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में एक राजपूत जमीदार परिवार में (मंडा संपत्ति पर शासन किया) हुआ था. वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे. ऐसे में वीपी सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर देश की सत्ता पर काबिज हुए तो भारत ही नहीं बल्कि नेपाल तक के राजपूत समाज ने खुशी में दीप जलाया था. जश्न भी क्यों न मनाए आजादी के बाद पहली बार कोई राजपूत समाज का नेता भारत का प्रधानमंत्री बना था. 


सामाजिक न्याय के मसीहा बने वीपी सिंह


पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सामाजिक न्याय की दिशा में उन्होंने इतिहासिक कदम उठाते हुए मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू कर दिया. वीपी सिंह के इस फैसले से आधी आबादी यानी ओबीसी को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला, जिससे पिछड़े समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा बदल गई. वहीं, दूसरा ओर इसी फैसले की वजह से सवर्ण समाज की नजर में वो विभाजनकारी व्यक्तित्व बन गए. 


मंडल के काट कमंडल नारे ने बी पी सिंह को दी मात

मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने को लेकर सवर्ण समाज आक्रोशित हो गया. मंडल कमीशन के खिलाफ देश भर में आंदोलन शुरू हो गए. एक समय जो समाज वीपी सिंह को हीरो के तरह देख रहा था, वही समाज उन्हें खलनायक की तरह याद है. उनका विरोध करने वाले मानते हैं कि उन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए मंडल कमिशन की सिफारिशों को लागू किया था. 


सवर्ण समुदाय की नजर में खलनायक बने गए


वीपी सिंह ने पीएम रहते कुछ ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम दिया, जिसके लिए कोई उन्हें नायक तो कोई उन्हें खलनायक के तौर पर देखता है. ओबीसी का बड़ा तबका उन्हें नायक के तौर पर देखते हैं, लेकिन उनकी छवि को एक नायक के रूप में स्थापित नहीं कर सका. वहीं, मंडल सिफारिशों के चलते जो लोग वीपी सिंह से नाराज थे. उन्होंने खलनायक के तौर पर उन्हें समाज में पेश किया. 



बीजेपी व अन्य विपक्षी दलों का अभिजात्य वर्ग वीपी सिंह से इस कदर नाराज हुआ कि उन्हें सत्ता से बेदखल करने को लेकर सब एक हो गए. यहां तक वीपी सिंह के खिलाफ उनके ही समुदाय के चंद्रशेखर उनके लिए चुनौती बन गए. उस समय वीपी सिंह की संयुक्त मोर्चा सरकार बीजेपी की बैसाखी पर चल रही थी. मंडल आंदोलन को खरमंडल करने के लिए बीजेपी ने कमंडल की राजनीति को धार दे दिया. बीजेपी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और संसद में विश्वास मत के दौरान उनकी सरकार गिर गई. 


देश की आजादी से गोदान आंदोलन तक


 वीपी सिंह ने छात्र जीवन में ही सियायत में कदम रखा दिया था. वीपी सिंह ने शुरुआती पढ़ाई के बाद 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उदय प्रताप कॉलेज में दाखिला ले लिया. यह वह समय था जब देश आजादी की खुशी मना रहा था और खुद को व्यवस्थित करने लगा हुआ था. वीपी सिंह ने छात्र राजनीति में कदम रखा और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रहे और कॉलेज के दिनों में ही आंदोलनों में कूद गए. 


1957 में जब भूदान आंदोलन हुआ तो वीपी सिंह के नेतृत्व में भारी संख्या जुटे युवाओं को देखकर राजनीतिक पंडिंतों ने ऐलान कर दिया कि भविष्य का बड़ा नेता उभर रहा है. इस आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी जमीन दान कर दी. इस दौरान तक वह कांग्रेस में शामिल हो चुके थे. इस वक्त तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे ताकतवर नेता बन चुके थे. 1980 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. 



वीपी सिंह का सियासी सफर


वह दो साल से ज्यादा मुख्यमंत्री रहे और फिर केंद्र सरकार में मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली. 31 दिसम्बर 1984 को वीपी सिंह केंद्रीय मंत्री बने. इस दौरान वीपी सिंह का टकराव प्रधानमंत्री राजीव गांधी से हो गया और उन्होंने कांग्रेस से अलग अपना सियासी रास्ता चुना और देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मंडल कमीशन लागू कर ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दे दिया. इसके बावजूद वीपी सिंह कभी भी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए और अपने सवर्ण समाज की नजर में खलनायक पूरी उम्र बने रहे. 


विश्वनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि सामाजिक परिवर्तन की जो मशाल उन्होंने जलाई है और उसके उजाले में जो आंधी उठी है, उसका तार्किक परिणति तक पहुंचना अभी शेष है. अभी तो सेमीफाइनल भर हुआ है और हो सकता है कि फाइनल मेरे बाद हो. लेकिन अब कोई भी शक्ति उसका रास्ता नहीं रोक पाएगी. वीपी सिंह शुरुआत से ही नेतृत्व क्षमता के धनी रहे, जिसके दम पर सत्ता के सिंहासन तक पहुंचे और सामाजिक न्याय की दिशा में इतिहासिक कदम उठाकर पिछड़े और वंचित समाज को आरक्षण के दायरे में लाने का काम किया. 

 

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