अनिवार्य सैन्य सेवा - देश की सेना को अनिवार्य रूप से सेवाएँ देना

 अनिवार्य सैन्य सेवा

देश की सेना को अनिवार्य रूप से सेवाएँ देना



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वे राष्ट्र जो अक्सर बाह्य या आन्तरिक मोर्चों पर युद्ध झेलते रहते हैं, या झेल रहे हैं, उनमे अनिवार्य सैन्य सेवा लागू करने की प्रवृत्ति अधिक दिखती है। इन देशों के लिए ऐसा करना जरूरी भी प्रतीत होता है

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प्रस्तावना:

हाल में कुछ घटनाओं ने इस विचार को पुन: जन्म दे दिया है कि क्या भारत के हर नागरिक के लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए । भारत के नेताओं को 1962,1965 और 1971 में हुए हमलों के कारण बार-बार इस समस्या पर विचार करने को मजबूर किया है ।


अनिवार्य सैन्य सेवा

अनिवार्य सैन्य सेवा देश की सेना में हर नागरिक के अनिवार्य रूप से देश सेवा हेतु सेना में भर्ती को कहते हैं। अनिवार्य सैन्य सेवा की अवधारणा हमे पुरातन काल से ही देखने को मिलती है। इसका वर्तमान प्रारूप १७९० के दशक में हुई फ़्रान्सीसी क्रान्ति से मिलता है जहाँ सेना को ताकतवर बनाने के लिये युवाओं को सेना में अनिवार्य रूप से भर्ती किया गया था। बाद में इसी अवधारणा को यूरोपीय देशों ने शान्तिकाल में लागू किया था, जिसके तहत १ से ८ वर्ष तक की सैन्य सेवा देने के पश्चात नागरिक को केन्द्रीय बलों में भेजा जाता है।


यह विचार काफी विवादित भी है। इसके आलोचक इसे धार्मिक, वैचारिक व राजनैतिक रूप से गलत ठहराते हैं। उनका मानना है कि वैचारिक मतभेद वाली या अलोकप्रिय सरकारों के लिये यह सेवा देना व्यक्तिगत आधिकारों का उल्लंघन है। यही बात जबरदस्ती किये गये युद्धों के समय भी सेवा करने पर लागू होती है। अनिवार्य सैन्य सेवा देने वाले व्यक्तियों के भागने का भी खतरा रहता है, और वह इस कारण से देश छोड़कर दूसरे देशों से शरण भी मांग सकते हैं। इन खतरों से भली-भाँती परिचित होते हुए कुछ देशों ने वैकल्पिक सेवा की अवधारणा प्रारम्भ की है जिसमे सैन्य अभियान के अतिरिक्त सैन्य सेवाएँ और कभी कभी तो सेना के भी बाहर अन्य स्थानों पर सेवाएँ ली जाती हैं, जैसे फिनलैंड में 'सिवीलिपावेलस' (वैकल्पिक नागरिक सेवा), ऑस्ट्रिया तथा स्विट्ज़रलैंड में 'ज़िविलदिएन्स्त' (अनिवार्य सामुदायिक सेवा)। 


कई पूर्व सोवियत राष्ट्र पुरुषों को न केवल सेना में अनिवार्य रूप से भर्ती करते हैं बल्कि अर्द्धसैनिक बलों जैसे पुलिस के सामान केवल घरेलू सेवाएँ (आन्तरिक टुकड़ी) या ग़ैर युद्ध वाली बचाव सेवाएँ (नागरिक बचाव दल) में भी सेवाएँ लेते हैं, जिनमे से किसी को भी अनिवार्य सैन्य सेवा का विकल्प नहीं माना जाता है।



इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक बहुत से राष्ट्रों ने अनिवार्य सैन्य सेवा को खत्म कर चुके हैं तथा वे अब पेशेवर सैनिकों पर भरोसा करते हैं, जिसमे स्वैक्षिक सेवाएँ देने वाले स्वयंसेवक भी शामिल होते हैं। बहुत से राष्ट्र जो अनिवार्य सैन्य सेवा को समाप्त कर चुके हैं उनके पास भी युद्धकाल में इसे फिर से लागू करने का विकल्प उपलब्ध है। 


वे राष्ट्र जो अक्सर बाह्य या आन्तरिक मोर्चों पर युद्ध झेलते रहते हैं, या झेल रहे हैं, उनमे अनिवार्य सैन्य सेवा लागू करने की प्रवृत्ति अधिक दिखती है, जबकि लोकतान्त्रिक देशों में इसे लागू करने की प्रवृत्ति तानाशाही वाले राष्ट्रों से काफी कम है।



अनिवार्य सैनिक शिक्षा की आवश्यकता:

सैनिक शिक्षा कई दृष्टियों से उपयोगी और जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण होती है । इससे लोगों में अनुशासन आता है । इससे सेवा, त्याग, बलिदान और निष्ठा जैसे महान् गुणों को बढ़ावा मिलता है और साथ ही आवश्यकता पड़ने पर देश को विदेशी हमलों से बचाने के लिए प्रशिक्षित सैनिक उपलब्ध हो जाते हैं ।


सैनिक प्रशिक्षण से लोग शारीरिक दृष्टि से चुरत बने रहते हैं, उनका दृष्टिकोण व्यापक होता है, उनमे एकता की भावना आती है और देश के प्रति निष्ठा पैदा होती है । सैनिक शिक्षा को अनिवार्य बनाकर हमें निष्ठावान युवाओं की एक ऐसी फौज मिल जायेगी जो आवश्यकता पड़ने पर दुश्मन के विरुद्ध अजेय चट्‌टान तो होगी ही, शांति के समय अनेक प्रकार के आतंकवाद, हिंसा, महामारी, आदि को रोकने तथा आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों को लाने में भी योगदान कर सकेगी ।


सैनिक शिक्षा से हमारे सामान्य जीवन में भी अनेक लाभ होंगे । इससे लोगों को आदेश देना और हुक्म मानना दोनों ही आ जाता है । इसमें यह भी सिखाया जाता है कि व्यापक हितों के लिए निजी स्वार्थ पर ध्यान न दिया जाये । सिपाही के लिए कर्त्तव्य-पालन रोटी से अधिक महत्त्व का होता है । इससे त्याग और बलिदान की भावना पैदा होती है ।


यदि भारत के सभी युवाओं को अनिवार्य रूप से सैनिक शिक्षा दे दी जाये, तो देश में व्याप्त अनेक बुराइयों से एक साथ छुटकारा मिल जायेगा, क्योकि इसके द्वारा लोगों में ऐसे से गुणो का विकास होगा, जिससे अनेक समस्यायें स्वत: हल हो जायेंगी ।


इससे लोगों में टीम भावना आयेगी श्रम के प्रति आदर की भावना पैदा होगी कर्त्तव्य-बोध होगा और उनके चरित्र का विकास होगा । देश की प्रगति के लिए इन अनिवार्य सदगुणों का विकास सैन्य शिक्षा के द्वारा ही हो सकता है ।


सैनिक शिक्षा प्राप्त युवाओं को दैवी विपति में बचाव कार्यां के लिए भी बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है । आग से हुई दुर्घटना में, बाढ़ और सूखा राहत कार्यो में और दंगों के दौरान भी इनका सफल उपयोग किया जा सकता है । इस तरह कई प्रकार के अर्द्धसैनिक बलों जैसे केन्द्रीय रिजर्व पुलिस, बी.एस.एफ. आदि पर व्यय होने वाली धनराशि में भी काफी बचत की जा सकेगी ।


क्या आत्मनिर्भर भारत के लिए सैन्य प्रशिक्षण जरूरी है?

जहाँ एक और आत्म निर्भर भारत की बात की जा रही है वहीं हाल ही में देश में घटित घटनाओं ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत के हर नागरिक के लिए सैनिक प्रशिक्षण भी अनिवार्य कर देनी चाहिए? अगर इन घटनाओं का जिक्र किया जाए जैसे 1962, 1965 और 1971 में हुए नापाक हमलों या फिर गलवान, उरी में हुई आंतकी घटनाओं के अलावा बीजापुर में हुए नक्सली हमलों ने इस विषय पर विचार करने को मजबूर किया है।


सैन्य बैकअप की जरुरत हो या फिर देश के नागरिकों में अनुशासन की आवश्यकता, ऐसी हर स्थिति के लिए लोगों को सैन्य प्रशिक्षण के माध्यम से सक्षम बना सकते हैं। सैन्य प्रशिक्षण से लोगों के अंतर्मन में सेवा, त्याग, बलिदान और निष्ठा जैसे गुणों का निर्माण होता है और ऐसी सोच को भी बढ़ावा मिलता है। जिससे युद्ध या आतंकी हमले जैसी परिस्थिति में ये प्रशिक्षित सैनिक देश की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं।


सैन्य प्रशिक्षण का महत्व –

सैन्य प्रशिक्षण से लोगों में शारीरिक दक्षता के साथ देश के प्रति निष्ठा और एकता की भावना का निर्माण होता है। जिस तरह से भारतीय सेना अनुशासित हो कर देश की रक्षा के लिए अग्रणी रहती है, उसी प्रकार सैन्य प्रशिक्षण से शिक्षित युवा सैन्य विचारधारा के साथ देश की प्रगति के लिए कार्य करेगा। सेना की तरह किसी भी क्षेत्र में आई विपदा से लड़ने में सक्षम युवाओं की फ़ौज देश के लिए रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्य करेगी। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि सैनिक शिक्षा और प्रशिक्षण लोगों को अनुशासित करता है। 


हमारे देश में आजादी के बाद से ही सैनिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता है। एनसीसी के द्वारा विद्यार्थियों को ट्रेंनिग दी जाती है, जिसमें उन्हें यह सिखाया जाता है कि किस तरह से दुश्मन से युद्ध में लड़ कर सुरक्षा के साथ जीत हासिल की जाए। लोगों की एकता में कमी और मनभेद के चलते हमारे देश को कई सालों तक गुलामी करनी पड़ी है इसलिए आजादी के बाद लोकतांत्रिक भारत का यह दायित्व बनता है कि सैनिक शिक्षा के माध्यम से देश के विकास और रक्षा से सबंधित क्षेत्रों को और मजबूत बनाया जाए।


सैन्य प्रशिक्षण पर अन्य देशों का नज़रिया –

विश्व के कई देशों में सैन्य प्रशिक्षण के महत्व को समझते हुए इसे अनिवार्य किया गया है। ब्राजील, दक्षिण कोरिया, तुर्की, रूस, सीरिया, स्विट्जरलैंड, इरीट्रिया व इजरायल जैसे देश सैन्य शिक्षा नीति को लागू किए हुए है। ये देश भी मानते हैं कि सैनिक शिक्षा को अनिवार्य बनाकर हमें निष्ठावान युवाओं की एक ऐसी फौज मिल जाएगी जो आवश्यकता पड़ने पर दुश्मन के विरुद्ध अजेय चट्‌टान तो साबित होगी ही और शांति के समय अनेक प्रकार के आतंकवाद, हिंसा, महामारी आदि को रोकने तथा आर्थिक और सामाजिक क्रांतियों को लाने में भी योगदान करेगी।


अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण में समिति के सुझाव

मार्च 2018 में संसद की रक्षा मामलों की स्थायी समिति ने इस बात की सिफारिश की थी कि केंद्र व राज्य की सरकारी नौकरियों के लिए पांचवर्षीय सैन्य सेवा अनिवार्य कर दी जाए। इसके पीछे एक उद्देश्य यह भी था कि इससे सेना में जवानों व अधिकारियों की कमी भी पूरी हो जाएगी।

उपसंहार – सार्वजनिक रूप से सैनिक प्रशिक्षण पर बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यकता रहती है और इसकी व्यवस्था कर पाना आसान नहीं होगा, पर इससे होने वाले असीमित लाभों के देखते हुए यह आवश्यक है कि इस प्रशिक्षण को धीरे – धीरे ही अनिवार्य कर ही देना चाहिए। और इसके लिए विद्यालयों में एन सी सी तथा नगरों में सहायक सैनिक और अर्धसैनिक बलों का निर्माण किया गया है। इसमें और विस्तार करके अपने देश को सुरक्षित रखने में सहायता पहुंचा सकते हैं।



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