प्रबन्ध : अवधारणा, प्रकृति एवं महत्त्व [MANAGEMENT : CONCEPT, NATURE And SIGNIFICANCE] PART-2/4
प्रबन्ध : अवधारणा, प्रकृति एवं महत्त्व
[MANAGEMENT : CONCEPT, NATURE And SIGNIFICANCE]
PART-2/4
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प्रबन्ध, प्रशासन एवं संगठन में अन्तर
(DIFFERENCE BETWEEN MANAGEMENT, ADMINISTRATION AND ORGANIZATION)
तीनों शब्दों का आशय स्पष्ट हो जाने पर इनका अन्तर सहज ही स्पष्ट किया जा सकता है। प्रशासन जहाँ उद्देश्यों का निर्धारण, नीतियों का निर्माण एवं निर्देशन करता है, प्रबन्ध वहाँ प्रशासन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में नीतियों को क्रियान्वित करता है। संगठन एक प्रभावी तन्त्र है। जो प्रबन्ध के द्वारा निर्धारित नीतियों को क्रियान्वित रूप देता है। संक्षेप में, प्रशासन प्रभावी निर्देश है, प्रबन्ध प्रभावी क्रियान्वयन है तथा संगठन प्रभावी तन्त्र है।
इस प्रकार औद्योगिक संस्था के व्यवस्थाक्रम में प्रशासन उच्च स्तर पर होता है. प्रबन्ध मध्या स्तर पर तथा संगठन निम्न स्तर पर होता है। ओलीवर शेल्डन, फ्लोरेंस, टीड, लेंसवर्थ, शल्ज एवं विलियम स्प्रीगल जैसे प्रमुख विद्वानों ने इन तीनों शब्दों को पृथक्-पृथक् ही माना है। उनके अनुसार, प्रशासन नीति निर्धारण एवं उद्देश्य निश्चित करने सम्बन्धी कार्य हैं जबकि प्रबन्धन को क्रियान्वित रूप देने वाला प्रभावी तन्त्र है।
‘प्रबन्ध’, ‘प्रशासन’ तथा ‘संगठन’ शब्दों में अन्तर करने वाले विद्वानों के मतों की संक्षिप्त व्याख्या स्त्रीगल के शब्दों में इस प्रकार दी जा सकती है :
प्रशासन एक निर्णयात्मक कार्य है। इसके विपरीत, प्रबन्ध एक क्रियात्मक कार्य है, जो मुख्यतया प्रशासन द्वारा निर्धारित व्यापक नीतियों को क्रियान्वित करने से सम्बन्ध रखता है। संगठन वह विधि है जिसके द्वारा प्रशासन और प्रबन्ध के बीच तालमेल बैठाया जाता है।”
निष्कर्ष-अन्त में यह कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से प्रबन्ध, प्रशासन एवं संगठन में अन्तर है। व्यावहारिक दृष्टि से यह अन्तर परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए कार्यक्षेत्र सीमित है और एकल व्यापारी अथवा लघु साझेदारी व्यवसाय चल रहा है. वहाँ तीनों ही शब्द एक साथ क्रियाशील होंगे। एक ही व्यक्ति प्रशासक, प्रबन्धक एवं संगठनकर्ता होगा. परन्त वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जहाँ, व्यावसायिक एवं औद्योगिक क्रियाएँ विशालतम रूप धारण कर चकी है वहाँ तीनों ही क्रियाएँ स्पष्टतः पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होती हैं। बड़े आकार के संयक्त स्कन्ध प्रमण्डलों में यह अन्तर बहुत ही स्पष्ट दिखाई देता है। अंशधारी अथवा संचालकगण लक्ष्य निर्धारण एवं निर्माण का कार्य करते हैं, प्रबन्ध नीतियों को क्रियान्वित कराके लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान देते हैं। संगठनात्मक संरचना प्रशासन एवं प्रबन्ध के मध्य सामंजस्य स्थापित करके नीतियों को क्रियान्वित रूप प्रदान करती है। ये कार्य विशुद्ध रूप से अलग-अलग ही सम्पादित किये जाते हैं।
प्रबन्ध की प्रकृति
(NATURE OF MANAGEMENT)
किसी भी उपक्रम में कार्यरत व्यक्तियों को अपने-अपने क्षेत्र में कुशलतापूर्वक कार्य-निष्पादन तथा संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु अपनी-अपनी भूमिकाओं से अवगत होना आवश्यक है। प्रबन्धकीय क्षेत्र में नई प्रवृत्तियों का निरन्तर विकास होने के कारण प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति का नये परिवेश में अपने उत्तरदायित्वों से पूर्ण रूप से परिचित होना नितान्त आवश्यक हो गया है। यही कारण है कि प्रबन्ध की प्रकृति के सम्बन्ध में विभिन्न प्रबन्ध विद्वानों ने समयपर विभिन्न विचार प्रकट किये हैं। उदाहरण के लिए, लारेन्स एप्पले ने प्रबन्ध को सेविवर्गीय प्रकाशन प्रशासन माना है, जबकि टैरी ने इसे एक पृथक् क्रिया के रूप में माना है। पीटरसन तथा प्लाउमैन ने इसे एक तकनीक माना है, जबकि ब्रीच (Breach) ने इसे एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। कुन्ट्ज तथा ओ’डोनल ने प्रबन्ध को अन्य व्यक्तियों से कार्य सम्पादित करने की कला के रूप में माना है, जबकि टेलर ने प्रबन्ध को कला एवं विज्ञान कहा है। डेविस ने प्रबन्ध को मानसिक क्रिया के रूप में परिभाषित किया है, जबकि ओलिवर शैल्डन ने इसे समझौते की भावना के रूप में माना है। संक्षेप में, प्रबन्ध की प्रकृति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) प्रबन्ध : जन्मजात या अर्जित प्रतिभा के रूप में,
(II) प्रबन्ध : एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में,
(III) प्रबन्ध : एक पेशे के रूप में,
(IV) प्रबन्ध : कला अथवा विज्ञान अथवा दोनों के रूप में,
(V) प्रबन्ध : सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में।
(1) प्रबन्ध : जन्मजात या अर्जित प्रतिभा के रूप में
(MANAGEMENT : AS INBORN OR ACQUIRED ABILITY)
प्राचीनकाल से 18वीं शताब्दी की समाप्ति तक यह धारणा सर्वव्याप्त रही कि प्रबन्ध जन्मजात प्रतिभा है। यह मान्यता रही कि ‘प्रबन्धक जन्म लेते हैं, बनाये नहीं जा सकते।’ कुछ व्यक्ति पैदायशी रूप से कुशल व सामर्थ्यवान होते हैं। इस विचारधारा के समर्थकों का मत है कि जिस प्रकार एक कुशल नर्तकी के पाँव व कुशल गायक के कण्ठ ईश्वर की देन हैं, उसी प्रकार प्रबन्ध के गुण भी जन्मजात ढंग से भगवत् कृपा से प्राप्त होते हैं, उन्हें विकसित नहीं किया जा सकता है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही इतने अधिक योग्य, कुशल एवं दूरदर्शी होते हैं, कि वे सरलता व सहजता से नेतृत्व एवं संगठन का कार्य सफलतापूर्वक कर लेते हैं। प्रबन्धकीय गुण के जन्मजात मानने के विचार को निम्न कारण और पुष्ट करते हैं
(अ) एकल व्यवसाय और साझेदारी की प्रधानता-परम्परागत व्यवसाय तो आमतौर पर एकल व्यवसाय और साझेदारी प्रारूप में किए जाते रहे हैं जिनमें स्वामित्व और प्रबन्ध में कोई अलगाव (Separation) नहीं होता है। इनमें प्रबन्ध और स्वामित्व पीढी दर पीढी हस्तान्तरित होने से ऐसा आभास होता है कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है।
(ब) अनेक अग्रणी उद्योगपतियों के उदाहरण-देश, विदेश में ऐसे बहुत से सफल प्रबन्धक हुए हैं, जिन्होंने कोई औपचारिक प्रबन्धकीय शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं प्राप्त किया। जमशेदजी टाटा, घनश्याम दास बिड़ला, धीरूभाई अम्बानी, जमुनालाल बजाज जैसे भारत के अग्रणी उद्योगपतियों ने औपचारिक रूप में प्रबन्धकीय शिक्षा हासिल किये बिना ही अपनी धाक जमाई है।
(स) राजशाही व्यवस्था सदियों तक राजशाही भारत में चली है जिसमें राजा का बेटा ही राजा होता था। इस परम्परा से इस धारणा को बढ़ावा मिला कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है। कुछ लोगों का तो मानना है कि प्रबन्ध का उसके पूर्व जन्म के संस्कारों से गहरा सम्बन्ध होता है।
(द) प्रबन्ध कोई पृथक् विषय नहीं-20वीं शताब्दी के पूर्व प्रबन्ध को पृथक व विशिष्ट यि के रूप में नहीं मानकर सहज बुद्धि (Common Sense) की विधा माना जाता था। इसीलिए इसे अलग से पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत नहीं समझो गई। इससे यह विदित होता है कि प्रबन्ध को एक जन्मजात प्रतिभा माना जाता था। ज्ञान विज्ञान, प्रौद्योगिकी, वक्त एवं प्रशिक्षण को सुविधाओं में विकास ने उपरोक्त विचारधारा में एक इन्कलाब (क्रान्ति) पैदा कर दिया है। फलत: 19वा शताब्दा से प्रबन्ध को जन्मजात प्रतिभा न मान कर अर्जित प्रतिभा के रूप में देखा जा रहा है। इसके पीछे निम्नांकित मुख्य कारण बताये जाते
(अ) निगमित क्षेत्र (Corporate Sector) का विस्तार व विकास होने के कारण प्रबन्ध और स्वामित्व में अलगाव हो रहा है।
(ब) प्रबन्ध के औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था हेत् विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं का तीव्र विकास हो रहा है।
(स) परम्परागत व्यावसायियों और उद्योगपतियों द्वारा अपनी सन्तानों को प्रबन्ध विज्ञान म पारंगत बनाने हेतु देश-विदेश में शिक्षा दिलाई जा रही है।
(द) प्रबन्ध एक विशिष्ट विषय व पेशे के रूप में तेजी से विकसित हो रहा है।
(य) भारत में 3 अप्रैल, 1970 से प्रबन्ध-अभिकर्ता प्रणाली (Managing Agency. System) का समाप्त करना भी प्रबन्ध को जन्मजात प्रतिभा न मानकर अर्जित प्रतिभा क रूपमा स्थापित कर रहा है।
अतः कहा जा सकता है कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा ही नहीं, अपित् अर्जित प्रतिभा भी है। Management is not only inborn, but also acquired ability.
(II) प्रबन्ध : एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में
MANAGEMENT : AS AN UNIVERSAL PROCESS)
प्राय: यह कहा जाता है कि कण-कण में ईश्वर विद्यमान हैं, ठीक इसी प्रकार हमारे जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ पर प्रबन्ध की आवश्यकता न हो अर्थात् जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रबन्ध की आवश्यकता पड़ती है।
प्रबन्ध की प्रकृति को सार्वभौमिकता के रूप में व्यवस्थित करने का श्रेय हेनरी फेयोल को है। उनके अनुसार प्रबन्ध एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो प्रत्येक संगठन में समान रूप से सम्पन्न की जाती है। सभी प्रकार के संगठनों; जैसे—परिवार, विश्वविद्यालय, कॉलेज, नगर निगम, सरकारी कार्यालय, सेना, क्लब, देश, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघर, अस्पताल, होटल, बैंक, बीमा कम्पनी सभी में सीमित साधनों को एकीकृत करके उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रबन्ध की आवश्यकता होती है। श्री हेनरी फेयोल ने द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय प्रशासन विज्ञान कांफ्रेस के समक्ष बोलते हुए कहा था, “प्रशासन (प्रबन्ध) के अन्तर्गत केवल सार्वजनिक सेवा ही नहीं बल्कि प्रत्येक आकार, विवरण प्रारूप तथा उद्देश्यों वाले उपक्रमों को सम्मिलित करते हैं।’ लॉरेन्स एप्पले ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं, “जो प्रबन्ध कर सकता है वह किसी का भी प्रबन्ध कर सकता है।” एफ० डब्ल्यू० टेलर की राय में, “प्रबन्ध के प्राथमिक सिद्धान्त सभी मानवीय क्रियाओं, अर्थात् एक साधारण व्यक्ति की क्रियाओं से लेकर बड़े निगमों की क्रियाओं पर लागू होते हैं।” मैगीन्सन तथा मैकनन के अनुसार, “प्रबन्ध के सिद्धान्तों की विश्वव्यापकता विश्व के कुछ देशों तथा संस्थाओं तक सीमित नहीं है।” प्रबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों को सभी क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है। प्रबन्ध की सार्वभौमिकता का अभिप्राय यह है कि प्रबन्धकीय ज्ञान को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक, एक ही देश में एक कार्य से दसरे कार्य तक और एक देश से दूसरे देश तक हस्तान्तरित किया जा सकता है। प्रबन्ध की सार्वभौमिकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं
(1) प्रबन्ध की प्रक्रिया, कार्य व व्यवहार सार्वभौमिक है जिसे प्रत्येक स्थान पर लाग किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति समह हेत नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्देशन, नियंत्रण व अभिप्रेरण आवश्यक होते हैं। (2) जो प्रबन्ध करना जानते हैं वह किसी का भी प्रबन्ध कर सकते हैं। इसी तर्क के आधार पर प्रबन्धको व भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का स्थानान्तरण किया जाता है। प्रबन्धकीय कौशल व चातुर्य का हस्तान्तरण करने के उद्देश्य से ही व्यक्तियों का स्थानान्तरण किया जाता है।
(3) प्रबन्धकीय तकनीकें सभी देशों व सभी प्रकार के उपक्रमों में समान रूप से लाग होती हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका जैसे अविकसित देश, भारत जैसे विकासशील देश और अमेरिका जैसे विकसित देश में प्रबन्धकीय तकनीकें लगभग यथावत् रहती हैं।
सार्वभौमिकता के विपक्ष में तर्क
(ARGUMENTS AGAINST UNIVERSALITY)
कुछ प्रबन्धशास्त्री एवं प्रबन्धक निम्नलिखित तर्कों के आधार. पर प्रबन्ध को सार्वभौमिक प्रक्रिया नहीं मानते हैं
(1) प्रबन्ध पूरी तरह से परिस्थिति सापेक्ष (Situational) होता है और ऐसा कोई प्रबन्धकीय मार्ग नहीं है जो यथावत् रूप में किसी दूसरी दशा में पूर्णतया प्रयुक्त हो सके।
(2) प्रत्येक संगठन को उद्देश्यों की भिन्नता के अनुसार प्रबन्ध के भिन्न सिद्धान्तों को प्रयोग करना होता है।
(3) प्रबन्ध संस्कृति-बद्ध है अर्थात् प्रबन्ध पर देश की संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ता है। संस्कृति किसी समाज की मनोवृत्तियाँ, विश्वासों, मूल्यों, रीति-रिवाजों से सम्बन्धित होती है। उदाहरण के लिए, प्रबन्ध की जापानी तकनीक भारत में पूरी तरह से एवं ठीक से लागू नहीं हो सकती है, क्योंकि भारत की संस्कृति भिन्न है।
(4) एक ही उद्योग में कार्यरत दो फर्मों के प्रबन्ध दर्शन भिन्न-भिन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, एक फर्म का दर्शन शीघ्र लाभ कमाना तो दसरे का दीर्घकालीन आधार पर लाभ कमाने का हो सकता है। अत: दार्शनिक भिन्नता का प्रभाव वहाँ के कर्मचारियों के मनोबल, उत्पादकता, संगठन, संरचना, समर्पण, सम्प्रेषण के रचनाओं पर भिन्न-भिन्न होगा।
निष्कर्ष-प्रबन्ध में सार्वभौमिकता का गुण सर्वत्र व्याप्त है, किन्तु फिर भी प्रबंधक को इसे लागू करते समय देश की परिस्थिति एवं संस्कृति की प्रकृति, आकार एवं पृष्ठभूमि के अनुसार थोड़ा समायोजन करना पड़ सकता है अथवा कुछ मोड़ देना पड़ सकता है।
(III) प्रबन्ध : एक पेशे के रूप में
(MANAGEMENT : AS A PROFESSION)
20वीं शताब्दी में भीमकाय उद्योगों की स्थापना, उनमें प्रबन्ध और स्वामित्व का पृथक्करण, जटिल श्रम समस्याएँ, उदारीकरण, भूमण्डलीकरण कुछ ऐसे घटक हैं जिन्होंने प्रबन्ध को एक स्वतन्त्र पेशे के रूप में विकसित होने के लिए प्रेरित किया। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, रूस जैसे समुन्नत राष्ट्रों में प्रबन्ध एक स्वतन्त्र पेशे के रूप में मान्यता पा रहा है और परम्परागत और पारिवारिक प्रबन्धक का स्थान ‘पेशेवर-प्रबन्धक’ ग्रहण करते जा रहे हैं।
प्रबन्ध एक पेशा है या नहीं, इसका निश्चयन करने से पूर्व हमें पेशे के अर्थ व विशेषताओं का अध्ययन करना होगा।
पेशे का अर्थ एवं विशेषताएँ
(MEANING AND CHARACTERISTICS OF PROFESSION)
पेशा विशिष्ट ज्ञान पर आधारित वह धन्धा है जिसे विकसित और नियमित करने के लिए एक प्रतिनिधि संस्था की आवश्यकता होती है। यह प्रतिनिधि संस्था लोगों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करती है और अपने से सम्बद्ध संस्थाओं के लिए एक आचार संहिता बनाती है। हॉज एवं जान्सन के शब्दों में, “पेशा एक व्यवसाय है जिसके लिए कुछ विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता होती है जिसे समरूपता
च्च डिग्री द्वारा समाज के एक सम्बन्धित वर्ग की सेवा के लिए प्रयोग किया जाता है।” “ए० एस० हारनबी के अनुसार, पेशा एक ऐसा कार्य है जिसके लिए उच्च शिक्षा और विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।” प्रसिद्ध प्रबन्धशास्त्री मैक्फारलैण्ड (McFarland) ने पेशे की निम्न विशेषताएँ। स्पष्ट की हैं
(अ) संगठित ज्ञान का संग्रह,
(ब) औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था,
(स) पेशे के सदस्यों के लिए एक प्रतिनिधि संस्था,
(द) सदस्यों के लिए आचार-संहिता, एवं
(य) पेशे का उद्देश्य सेवा और सेवा की प्रकृति के अनुसार पारिश्रमिक।
अब हम देखेंगे कि पेशे की इन विशेषताओं का प्रबन्ध के साथ कितना सम्बन्ध है और प्रबन्ध । को हम कहाँ तक पेशा मान सकते हैं
(अ) प्रबन्ध पेशे की पहली विशेषता के करता है। विगत सात-आठ दशकों में प्रबन्ध ने ऐसे सिद्धान्तों, अवधारणाओं व तकनीकी का विकास किया है जिन्हें वृहद एवं जटिल संगठनों क बेहतर प्रबन्धन में सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है।
(ब) आजकल प्रबन्ध के शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए अनेक संस्थाएँ स्थापित हो चुकी हैं, परन्तु प्रबन्धकों के लिए वास्तव में वकीलों, चिकित्सकों व इंजीनियरों की भाँति किसी विशिष्ट प्रमाण पत्र व लाइसेन्स का लेना आवश्यक नहीं है।
(स) पेशे के लिए एक प्रतिनिधि संस्था होनी चाहिए। भारत में अखिल भारतीय प्रबन्ध परिषद (All India Management Association-AIMA) एक प्रमुख प्रतिनिधि संस्था है, परन्तु जैसे चिकित्सकों के लिए Medical Council of India व वकीलों के लिए Bar Council of India का पंजीकृत सदस्य होना जरूरी होता है, उस तरह प्रबन्धकों के लिए नहीं है। प्रबन्ध कार्य को संभालने के लिए इच्छुक व्यक्तियों की न्यूनतम शैक्षणिक या अन्य योग्यतायें कानूनी रूप से निर्धारित नहीं की गयी हैं।
(द) पेशे के लिए आचार संहिता का होना आवश्यक होता है। इस आचार संहिता में नियम, अधिनियम, पोशाक, ईमानदारी के मानदण्ड, निष्कपटता आदि शामिल होते हैं। प्रबन्धकों के लिए सर्वमान्य आचार-संहिता का अभाव है।
(य) पेशे में आर्थिक हितों की अपेक्षा सेवा को प्राथमिकता दी जाती है। पेशेवर प्रबन्धक भी सामाजिक परिप्रेक्ष्य और उत्तरदायित्व की भावना पर पर्याप्त बल दे रहे हैं।
निष्कर्ष-उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि प्रबन्ध एक अपूर्ण, किन्तु विकासोन्मुख पेशा है। प्रबन्ध को पूर्ण पेशा मानने में कुछ कठिनाइयाँ हैं। जैसे प्रबन्ध के क्षेत्र में कुछ खास डिग्री धारकों के प्रवेश की बाध्यता नहीं है, बहुत से प्रबन्धकों की स्वायत्तता और ईमानदारी पर संदेह किया जाता है प्रबन्धकों पर औपचारिक रूप से कोई नैतिक आचार-संहिता लागू नहीं होती है। प्रबन्ध आंशिक रूप से पेशा माना जाता है और अनवरत पेशा बनता जा रहा है। जैसे-जैसे तीव्र आर्थिक प्रगति करनी का चलन, स्वामित्व व प्रबन्ध में अलगाव होगा, प्रबन्ध को एक प्रतिष्ठित पेशे के रूप में स्वीकति मिलेगी। हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रबन्ध विज्ञान के पूर्व विभागाध्यक्ष लोवेल (Lovel) के अनसार. “प्रबन्ध सबसे बूढ़ी कला और सबसे जवान पेशा है।”
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